-योगेश कुमार सोनी-
सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों को अब बख्शा नहीं जाएगा। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देश में कई जगहों पर हिंसक घटनाओं के बाद गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को एडवाइजरी जारी करके हिंसा और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान को रोकने के लिए कहा है। यह भी आदेश दिए हैं कि हिंसा भड़काने पर सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों व अफवाहों के खिलाफ राज्य सरकारें कार्रवाई करें। अपने देश में आए दिन हर छोटी-बड़ी घटना को लेकर कहीं न कहीं विरोध प्रदर्शन होता रहता है। इस वजह से करोड़ों रुपये की सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान होता है। यहां विरोध का मतलब सिर्फ अब सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना रह गया है। कुछ सिरफिरों की वजह से इस तरह के नुकसान का भार पूरे देश की जनता पर पड़ता है। सरकार को ऐसे कदम काफी पहले ही उठा लेने चाहिए थे। तब इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले शरारती तत्वों के हौसले न बढ़ते। हिंसा को बढ़ावा देने या लोगों को भड़काने में सोशल मीडिया का भी बहुत बड़ा हाथ रहता है। लोग बिना सोचे-समझे हिंसक घटनाओं के आपत्तिजनक वीडियो व फोटो शेयर कर देते हैं। इससे मामूली घटनाओं की चिंगारी भी देश के कोने-कोने में फैल जाती है। जामिया मिलिया इस्लामिया में हुए हिंसक विरोध के मामले में यही हुआ। अब जामिया की चिंगारी पूरे देश में फैल गई है। आश्चर्य तब होता है कि जब लोग एक ही विडियो पर अलग-अलग तरह की बात लिखकर शेयर कर देते हैं। इस तरह सोशल मीडिया पर गलत पोस्ट करके समाज को बांटने की कोशिश की जा रही है। यदि हम ऐसा सोचते हैं कि इसका दुष्प्रभाव सिर्फ अशिक्षित वर्ग पर पड़ता है तो यह सोचना गलत है। अब इसकी चपेट में शिक्षित वर्ग ज्यादा आने लगा है। क्योंकि, वह सोशल मीडिया पर ज्यादा भरोसा करता है। किसी घटना के वीडियो पर गलत कमेंट करके लोग नकारात्मक दुनिया का निर्माण कर रहे हैं। हर रोज कितना जहर फैल रहा है, लोगों को इसका अंदाजा नहीं होता। कुछ दिन पहले दो लड़कों की फोटो वायरल हुई थी। उन्हें व्हाट्स एप व फेसबुक पर चोर कहकर फैला दिया गया था। एक जगह उन्हें किसी ने पहचान लिया और भीड़ ने उनको बिना जांच-पड़ताल के शक के आधार पर पीट-पीटकर मार दिया था। मामले की जांच हुई तो पता चला कि वह निर्दोष थे। मान लीजिए कि वह दोषी भी थे, तो उन्हें जान से मारना सभ्य समाज का न्याय नहीं है। उन्हें कानून के हवाले भी किया जा सकता था। ऐसी घटनाओं से मॉब लिंचिंग व हिंसा बढ़ रही है। इस तरह के कई उदाहरण हैं। कुछ लोग किसी घटना या बयान के साथ छेड़छाड़ करके उस बात को सोशल मीडिया पर ऐसे ट्रेंड करवा देते हैं जैसे वह घटना सत्य हो। लेकिन ज्यादा दुख तब होता है जब लोग बिना जांच किए उस बात को शेयर या फॉरवर्ड कर देते हैं। इससे बड़ा नुकसान तब होता है जब जनता उसे सच मान लेती है। बीते दिनों फेसबुक के संस्थापक मार्क जकुरबर्ग ने फेसबुक पर हिंसक घटनाओं को शेयर करने वालों पर शिकंजा कसा था। आमतौर पर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के जरिये फेसबुक पर यदि कोई भी आपत्तिजनक वीडियो या फोटो शेयर करने पर वह नहीं दिखती। फिर भी कुछ वीडियो व फोटो प्रदर्शित हो जाती है। कितना दुखद है कि आंदोलनकारी अब आंदोलन का अर्थ सिर्फ बसें जलाना, रेलवे ट्रैक उखाड़ना, सरकारी भवनों के शीशे तोड़ना ही समझने लगे हैं। अपनी बात को सरकार तक पहुंचाने या मनवाने के लिए वह सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाना ही एक मात्र माध्यम मानने लगे हैं। जबकि, विरोध का यह तरीका ठीक नहीं है। हम भूल जाते हैं कि ऐसा करके हम अपना ही नुकसान करते हैं। सरकारी सम्पत्तियां भी तो हमारे ही टैक्स की कमाई से खरीदी गई होती हैं। तो वह नुकसान किसका है? हैरत की बात यह है कि कई घटनाओं में वे ही चेहरे नजर आते हैं जो पहले भी कई बार देखे जा चुके होते हैं। कभी टोपी पहनकर तो कभी माथे पर टीका लगाए प्रदर्शन करते नजर आते हैं। मतलब कुछ आंदोलनकारी तो फिक्स हैं। इसका मतलब कि पैसा देकर भी गलत काम हो रहे हैं। फिर आंदोलनकारियों और कश्मीर के पत्थरबाजों में अंतर ही क्या रह जाता है? आंदोलनकारी एक बार में कितनी सार्वजनिक संपति का नुकसान कर देते हैं, उनको इसका अंदाजा भी नहीं होता। अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यहां सभी को अपनी बात रखने की आजादी होती है। राजनीतिक दलों का भी फर्ज होता है कि वे इस तरह की गतिविधियों को रोकें। आखिर सभी राजनीतिक दलों का सपना तो सरकार में आना ही होता है। लगभग दो देशक पूर्व यदि किसी घटना को लेकर प्रदर्शन या धरना होता था तो पहले संबंधित संस्था, सरकार या यूनिवर्सिटी को ज्ञापन दिया जाता था। लेकिन अब तो इन सब चीजों का मायना ही बदल गया। यह सही है कि प्रदर्शनों में कॉलेज के विद्यार्थियों की बहुतायत होती है। नई पौध को बरगलाना आसान होता है। इसलिए राजनीतिक दल कॉलेजों को अपनी राजनीति का अखाड़ा समझने लगे। अब तो ऐसा लगने लगा कि कॉलेजों में बच्चे पढ़ने नहीं राजनीति करने या उसका शिकार होने के लिए जाते हैं। इससे अराजकता को बढ़ावा मिलता है। जरा सोचिये, यदि पूरा समाज अराजक हो गया तो कौन रोकेगा? छात्रों को भी सोचना चाहिए कि वह कॉलेज में अपनी जिन्दगी बेहतर बनाने गए हैं न कि किसी गलत काम में भागीदार बनने। यदि किसी गलत मामले में मुकदमा दायर हो गया तो पूरी जिन्दगी प्रभावित होगी। सरकारी नौकरी से भी वंचित होना पड़ सकता है।
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